Friday 11 May 2012

राजकुमार सोनी की कविताएं




(1)

इंसानियत


जो बुरे कर्म करे,
उसे शैतान कहते हैं।
जो इंसानियत को डसे,
उसे हैवान कहते हैं।
जो इन दुर्गुणों को छोड़कर,
सन्मार्ग अपनाये,
सचमुच उसे इंसान तो क्या
भगवान कहते हैं।
जिन्दगी का दूसरा नाम,
जिन्दादिली है।
फूल की रक्षा न
कर पाना बुझदिली है।
प्यार की चिता पर ...,
स्वयं को भस्म कर डाले।
वही तो सच्ची मोहब्बत
की संग दिली है।

(2)
जिन्दगी का सफर


जिन्दगी का सफर बड़ा है।
पर जख्म दिल का पुराना है।।
वे खौफ तूफानों से डरता नहीं।
यही तो हमें आजमाना है।।
हम लुटे, भीड़ में- बाजार में।
क्योंकि दिल का हिसाब चुकाना है।।
अब न फेंको फूल मुझ पे जरा।
फिर लौटूंगा वीरान चमन में।।
अभी तो मुझे बहार लाना है।।

(तीन)
जिन्दगी तो बेवफा है

जिन्दगी का ये घट,
बूंद-बूंद से भरता है।
कदम-कदम पै वे हिसाब,
राहों में बिखरता है।
जिन्दगी तो बेवफा है,
तभी तो उम्र घट रही है।
मगर राही की नजरें,
मंजिलों पर टिक रही हैं।
हो सके आरजू दिल में,
हम यही पालते रहें।
कर लें आज हम प्यार,
घड़ी यही निकालते रहें।।

(चार)
औरों के दु:ख सहूं

क्या कुछ मैंने खोया है
क्या अब मैं कुछ पाऊंगा
आया था काली हाथ
खाली हाथ ही जाऊंगा
कुछ कर गुजरूं मैं
सोचता हूं मैं क्या करूं
किसी को अपने सुख देकर
औरों के दु:ख सहूं।

आंसू नहीं हैं आंख में
बहाना जरूर है...।
मुझे औरों के दु:ख
सहने में ही खुद पर गुरूर है।।

वो मुस्कराते रहें
मैं उम्र भर रोता रहूं।
मरूं तो में बस....।
दु:खों की सेजों पर ही
सुख एक अनुभूति है
क्षण भर का विश्राम
दु:ख एक जीवन है।
वही है जीवन संग्राम।।

(पांच)
हम पतझड़ में बहार लाते हैं

हम वो हैं
जो .....
पतझड़ में
बहार लाते हैं।
गम में....
आंसू नहीं बहाते
बल्कि
और मुस्कराते हैं।।
सोचता हूं
क्या
लेकर
हम आये थे।
और
क्या लेकर जाएंगे
भाई-बहन
रिश्ते-नाते,
धन-दौलत
सभी
यहीं रह जाएंगे।
ये गम क्या है
इस शरीर का वो
नम हिस्सा है,
जो घड़ी-घड़ी रोता है
और घड़ी-घड़ी हंसता है।
फिर जिन्दगी को क्यों न
गम में ही खुश रखूं,
गम ही जीवन का सार है
क्यों न औरों से मैं कहूं।।


(छह)
अंधकार मिटाओ

दीपक के अंतर्मन से
एक सवाल उठा
बाती...
ने लौ से पूछा
क्या होते रहेंगे
देश में- विश्व में
अत्याचार...?
अनाचार...?
दुराचार....?
विश्वासघात...?
भ्रष्टाचार...?
कब पैदा होगा
इनको मिटाने वाला।
इंतजार है हमें
उनके अवतरण का।।

प्रयुत्तर में-
लौ मुस्कुराई
बोली .....
श्री की स्थापना
पहले हो चुकी है।
लेकिन
अंधकार
की दीवार
इस कदर
फैली है ......
कि तुम को ही काम
करना है,
अंधकार मिटाकर
उद्धरण बनना है।
तुम्हीं हो रोशनी
के दाता....।
तुम्हीं हो देश के
भाग्य विधाता।।

(सात)
अनगिनत दीप जल गए
अंधकार
चारों तरफ अंधकार।
मच रहा हा ... हा ..कार।
छल, प्रपंच, अत्याचार
क्या यही है
समय के उपहार
नहीं....?
कभी
नहीं ....?
अचानक
प्रकृति के दर्पण में
एक चिंगारी छूटी
अनायास
रोशनी फैलती चली गयी।
दूर हुआ अंधेरा
ज्यों प्रकट हुआ
रात में सबेरा।
तब कुहासों के बादल
छट गए।
जब अनगिनत
दीप जल गए।।
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